2006 Mumbai train blast: भारत के सबसे भयावह आतंकी हमलों में से एक, 2006 मुंबई लोकल ट्रेन धमाके मामले में आज बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए सभी 12 अभियुक्तों को बरी कर दिया है। इस फैसले ने देश की न्याय व्यवस्था, जांच एजेंसियों और आतंकवाद से निपटने की हमारी रणनीति पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।
2006 Mumbai local train blasts case—Bombay HC acquits all 12 accused pic.twitter.com/sD1xbpZFDd
— ThePrintIndia (@ThePrintIndia) July 21, 2025
11 जुलाई 2006 – एक भयावह शाम
मुंबई की रफ्तार थम गई थी जब 11 जुलाई 2006 की शाम, पिक आवर में मुंबई की 7 अलग-अलग लोकल ट्रेनों में महज 11 मिनट के अंदर सिलसिलेवार बम धमाके हुए। इस भीषण त्रासदी में 189 लोगों की मौत हो गई और 800 से अधिक यात्री गंभीर रूप से घायल हो गए। घटनास्थल पर बिखरे मानव अंग, चीखते लोग और खून से सनी पटरियां आज भी मुंबईवासियों की स्मृति में ताजा हैं।
इस आतंकवादी घटना को इंडियन मुजाहिदीन और पाकिस्तानी आतंकी संगठनों की साजिश माना गया। तत्कालीन महाराष्ट्र एटीएस ने 13 लोगों को गिरफ्तार किया, जिनमें से 12 को 2015 में दोषी ठहराया गया।
2015 का विशेष अदालत का फैसला
मुंबई की विशेष मकोका अदालत ने 2015 में 12 अभियुक्तों में से 5 को मौत की सजा और 7 को उम्रकैद सुनाई थी। अभियोजन पक्ष ने दावा किया था कि ये सभी अभियुक्त पाकिस्तान में प्रशिक्षित हुए थे और बम धमाकों को अंजाम देने में इनकी सक्रिय भूमिका थी।
बॉम्बे हाईकोर्ट ने क्यों बरी किया?
बॉम्बे हाईकोर्ट की दो सदस्यीय खंडपीठ – न्यायमूर्ति अनील किलोर और न्यायमूर्ति एस.सी. चांदक – ने अपने फैसले में स्पष्ट रूप से कहा कि अभियोजन पक्ष आतंकवादियों के खिलाफ “ठोस और भरोसेमंद सबूत” पेश करने में पूरी तरह विफल रहा।
कोर्ट ने कहा कि:
- गवाहों के बयान अप्राकृतिक और अविश्वसनीय थे – कई प्रमुख गवाहों ने घटना के 100 दिन बाद बयान दर्ज कराए, जो कोर्ट की नजर में अव्यवहारिक और भ्रमित करने वाले थे।
- फॉरेंसिक साक्ष्य कमजोर – अभियोजन द्वारा प्रस्तुत तकनीकी साक्ष्य, जैसे बम की संरचना, विस्फोट में प्रयुक्त सामग्री, और उसकी अभियुक्तों से कथित कड़ी – कोई निर्णायक कड़ी स्थापित नहीं कर पाए।
- स्वीकृति बयान पर आधारित निर्णय अनुचित – कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जिन आरोपियों ने आत्मस्वीकृति दी, वे बयान पुलिस हिरासत में दिए गए थे और उन्हें स्वतंत्र रूप से नहीं माना जा सकता।
- पूरी जांच में ‘असमान्यताएं’ – फैसले में कहा गया कि यह मामला “बेहद असामान्य” था, जहाँ जांच एजेंसियों ने महत्वपूर्ण सबूत इकट्ठा करने में लापरवाही बरती।
19 साल लंबी प्रतीक्षा: न्याय मिला या खो गया?
इस केस की सुनवाई लगभग दो दशकों तक चली। 2006 में घटना के तुरंत बाद आरोप तय हुए थे, पर विशेष अदालत का निर्णय 2015 में आया। और अब, 2025 में, बॉम्बे हाईकोर्ट ने उन सभी को बरी कर दिया।
इस लंबे समय में, अभियुक्त जेल में रहे—कुछ ने जेल में अपने माता-पिता को खोया, कुछ की शादियां टूट गईं, और कुछ का पूरा जीवन कालकोठरी में ही बीता।
पूर्व ATS प्रमुख की तीखी प्रतिक्रिया
महाराष्ट्र एटीएस के पूर्व प्रमुख के.पी. रघुवंशी ने हाईकोर्ट के फैसले को “चौंकाने वाला” करार दिया और कहा कि अभियोजन पक्ष के पास पर्याप्त सबूत थे। उन्होंने सरकार से मांग की कि वह इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे।
उनके अनुसार, 250 गवाहों के बयान, तकनीकी साक्ष्य और अभियुक्तों की कथित गतिविधियों से यह स्पष्ट था कि वे इस आतंकी साजिश में शामिल थे।
बरी किए गए अभियुक्त कौन हैं?
2015 में विशेष अदालत द्वारा दोषी ठहराए गए 12 अभियुक्तों में से 5 को मृत्युदंड और 7 को उम्रकैद की सजा मिली थी। इनमें से कुछ अभियुक्तों के नाम थे:
- फैजल शेख
- मोहम्मद अंसारी
- कमर अंसारी
- नवेद खान
- एकबाल अंसारी
- तारिक अहमद
- एहसानुल्लाह
अब बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले के बाद सभी को तत्काल रिहा करने का आदेश दिया गया है, बशर्ते वे किसी अन्य केस में हिरासत में न हों।
पीड़ितों के परिवारों के लिए यह क्या मायने रखता है?
इस निर्णय से सबसे ज्यादा आहत वे परिवार हैं जिन्होंने उस दिन अपने परिजनों को खोया था। मुंबई के बोरिवली, बांद्रा, माहिम और माटुंगा जैसे क्षेत्रों के लोग आज भी उस दिन की त्रासदी नहीं भूल पाए हैं।
उनमें से कई लोगों ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि “अगर 19 साल बाद भी न्याय न मिले, तो अपराधियों को रोकने की उम्मीद किससे करें?”
कुछ पीड़ितों ने कोर्ट के निर्णय पर निराशा जताई, जबकि कुछ ने कहा कि यदि अभियुक्त निर्दोष थे, तो उन्हें इस त्रासदी का दोषी बनाकर 19 साल तक जेल में रखना भी एक अन्याय है।
अब आगे क्या?
महाराष्ट्र सरकार इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर करने की तैयारी कर रही है। मुख्यमंत्री और गृह विभाग ने इस निर्णय की कॉपी का अध्ययन कर राज्य के वरिष्ठ कानूनी अधिकारियों से विचार-विमर्श शुरू कर दिया है।
सरकार यदि उच्चतम न्यायालय में अपील करती है, तो यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या सर्वोच्च न्यायालय हाईकोर्ट के इस फैसले को पलटेगा या नहीं।
एक सिस्टम की गूंजती विफलता
2006 के बम धमाके सिर्फ एक आतंकी घटना नहीं थे, बल्कि एक सुनियोजित हमला था भारत की आर्थिक राजधानी की धड़कन पर। आज, जब कोर्ट सभी अभियुक्तों को निर्दोष ठहराती है, तो यह न केवल न्यायिक प्रणाली की बल्कि जांच एजेंसियों की कार्यप्रणाली पर भी कठोर प्रश्न खड़े करता है।
यह निर्णय इस ओर संकेत करता है कि आतंकवाद से लड़ाई केवल सख्त कानूनों से नहीं, बल्कि मजबूत जांच और दोषहीन अभियोजन से ही जीती जा सकती है। नहीं तो, पीड़ित हमेशा न्याय की प्रतीक्षा में रहेंगे और निर्दोष वर्षों तक सलाखों के पीछे सड़ते रहेंगे।
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