Dhankhar on SC: भारत के संसदीय इतिहास में कुछ मौके ऐसे होते हैं, जो अपनी अनोखी प्रकृति के कारण चर्चा का केंद्र बन जाते हैं। हाल ही में, उप-राष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ के एक बयान ने ऐसा ही तूफान खड़ा किया है। 17 अप्रैल, 2025 को, धनखड़ ने न्यायपालिका पर तीखा हमला बोलते हुए कहा कि सर्वोच्च न्यायालय को राष्ट्रपति के लिए समय-सीमा तय करने या “सुपर संसद” की तरह व्यवहार करने का अधिकार नहीं है। उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 142 को “लोकतांत्रिक ताकतों के खिलाफ 24×7 उपलब्ध परमाणु मिसाइल” तक करार दिया। इस बयान ने न केवल राजनीतिक गलियारों में हलचल मचाई, बल्कि वरिष्ठ अधिवक्ता और राज्यसभा सांसद कपिल सिब्बल को भी इसकी आलोचना करने के लिए मजबूर कर दिया। सिब्बल ने कहा, “मैंने कभी किसी राज्यसभा सभापति को इस तरह के राजनीतिक और विवादास्पद बयान देते नहीं देखा।” आइए, इस मुद्दे को गहराई से समझते हैं।
धनखड़ के बयान का मर्म
उप-राष्ट्रपति धनखड़ ने 17 अप्रैल को राज्यसभा के इंटर्न्स को संबोधित करते हुए न्यायपालिका की भूमिका पर सवाल उठाए। उनका कहना था कि सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में एक फैसले में राष्ट्रपति को राज्यपालों द्वारा भेजे गए विधेयकों पर तीन महीने के भीतर निर्णय लेने की समय-सीमा तय की, जो उनके अनुसार असंवैधानिक है। धनखड़ ने कहा, “हम ऐसी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए तैयार नहीं थे, जहां राष्ट्रपति को समय-सीमा में बांधा जाए। न्यायाधीश अब कानून बनाएंगे, कार्यकारी कार्य करेंगे, और सुपर संसद की तरह व्यवहार करेंगे, बिना किसी जवाबदेही के।”
उन्होंने अनुच्छेद 142, जो सर्वोच्च न्यायालय को “पूर्ण न्याय” सुनिश्चित करने के लिए विशेष शक्तियां देता है, को लोकतंत्र के लिए खतरा बताया। यह बयान उस समय आया, जब हाल ही में तमिलनाडु के राज्यपाल द्वारा विधेयकों को रोकने के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने सख्त रुख अपनाया था। धनखड़ के इस बयान को कई लोग कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच बढ़ते तनाव के रूप में देख रहे हैं।
कपिल सिब्बल का तीखा जवाब
कपिल सिब्बल, जो न केवल एक वरिष्ठ अधिवक्ता हैं, बल्कि सर्वोच्च न्यायालय बार एसोसिएशन के अध्यक्ष भी हैं, ने धनखड़ के बयान को “असंवैधानिक” और “निंदनीय” करार दिया। एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में सिब्बल ने कहा, “लोकसभा स्पीकर और राज्यसभा सभापति को विपक्ष और सत्ताधारी दल के बीच समान दूरी बनाए रखनी चाहिए। वे किसी पार्टी के प्रवक्ता नहीं हो सकते। धनखड़ के बयान से ऐसा लगता है जैसे न्यायपालिका को सबक सिखाया जा रहा हो, जो न तो तटस्थ है और न ही संवैधानिक।”
सिब्बल ने धनखड़ पर चुनिंदा इतिहास का जिक्र करने का भी आरोप लगाया। उन्होंने कहा, “उन्होंने 1984 की घटनाओं का जिक्र किया, लेकिन 2002 की बात नहीं की। आपातकाल की चर्चा की, लेकिन मौजूदा ‘अघोषित आपातकाल’ पर चुप्पी साध ली।” सिब्बल ने यह भी तर्क दिया कि अगर कार्यपालिका अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाती, तो न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना ही पड़ता है। उन्होंने 1975 के उस फैसले का उदाहरण दिया, जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का चुनाव सर्वोच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया था। सिब्बल ने सवाल उठाया, “तब एक जज का फैसला धनखड़ जी को स्वीकार था, लेकिन अब दो जजों का फैसला गलत है क्योंकि यह सरकार के पक्ष में नहीं है?”
न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर खतरा?
सिब्बल ने चेतावनी दी कि धनखड़ जैसे बयानों से न्यायपालिका की स्वतंत्रता को खतरा हो सकता है। उन्होंने कहा, “न्यायपालिका खुद अपनी रक्षा नहीं कर सकती। अगर कार्यपालिका, खासकर दो केंद्रीय मंत्री—अर्जुन राम मेघवाल और किरेन रिजिजू—और राज्यसभा सभापति इस तरह हमला करते हैं, तो यह लोकतंत्र के लिए खतरनाक है।” सिब्बल ने जोर देकर कहा कि न्यायपालिका वह आखिरी संस्था है, जिसमें जनता का भरोसा बरकरार है।
उन्होंने यह भी बताया कि कैसे सरकार उन फैसलों की तारीफ करती है, जो उसके पक्ष में होते हैं, जैसे अनुच्छेद 370 या राम जन्मभूमि पर फैसला, लेकिन असहमति होने पर न्यायपालिका को निशाना बनाया जाता है। सिब्बल ने धनखड़ के अनुच्छेद 142 पर टिप्पणी को खारिज करते हुए कहा, “यह शक्ति संविधान ने दी है, न कि सरकार ने। अगर नोटबंदी जैसा फैसला ‘परमाणु मिसाइल’ नहीं था, तो अनुच्छेद 142 को ऐसा कैसे कहा जा सकता है?”
राजनीतिक प्रतिक्रियाएं और विवाद
धनखड़ के बयान ने विपक्ष को एकजुट करने का काम किया है। कांग्रेस नेता सुप्रिया श्रीनेत ने कहा कि धनखड़ को राज्यपालों के “असंवैधानिक व्यवहार” पर सवाल उठाने चाहिए, जो विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को रोकते हैं। टीएमसी सांसद कल्याण बनर्जी ने भी धनखड़ पर न्यायपालिका के प्रति “बार-बार अनादर” दिखाने का आरोप लगाया। हालांकि, कुछ वकीलों जैसे महेश जेठमलानी ने धनखड़ का समर्थन करते हुए कहा कि न्यायपालिका में पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी है।
जगदीप धनखड़ का यह बयान न केवल उनके पद की गरिमा पर सवाल उठाता है, बल्कि कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच संतुलन को भी प्रभावित करता है। कपिल सिब्बल की तीखी प्रतिक्रिया ने इस मुद्दे को और गंभीर बना दिया है। यह विवाद हमें याद दिलाता है कि लोकतंत्र की मजबूती के लिए सभी संवैधानिक संस्थाओं को अपनी सीमाओं का सम्मान करना होगा। क्या धनखड़ का यह बयान एक अपवाद है, या यह भविष्य में और तनाव का कारण बनेगा? यह समय ही बताएगा।
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