Justice Yashwant Varma case: इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस यशवंत वर्मा ने सुप्रीम कोर्ट में एक विशेष याचिका दायर की है, जिसमें उन्होंने उनके खिलाफ की गई इन-हाउस जांच समिति की रिपोर्ट और तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश (CJI) संजीव खन्ना द्वारा राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को भेजी गई सिफारिश को असंवैधानिक ठहराते हुए चुनौती दी है। वर्मा का कहना है कि जांच प्रक्रिया न्याय और संविधान के सिद्धांतों के विरुद्ध थी और उन्हें उचित रूप से अपनी बात रखने का अवसर तक नहीं दिया गया।
We are witnessing a historic showdown in Indian Constitutional History.
— Deadly Law (@DeadlyLaw) July 18, 2025
Justice Yashwant Varma has filed a writ petition in the Supreme Court, challenging in-house inquiry's findings that indicted him in the infamous cash-at-residence row.
Here’s what’s happening 🧵- pic.twitter.com/cFLng6JQHu
यह मामला केवल एक न्यायाधीश की व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं है, बल्कि भारत की न्यायिक प्रणाली की पारदर्शिता, जवाबदेही और संवैधानिक मर्यादा से जुड़ा एक बड़ा मुद्दा बन चुका है।
पूरा मामला क्या है?
मार्च 2025 में दिल्ली हाई कोर्ट परिसर के एक स्टोररूम में आग लगने की घटना सामने आई थी। आग बुझाने के दौरान फायर ब्रिगेड के कर्मचारियों को बड़ी मात्रा में जले हुए ₹500 के नोट मिले थे। यह घटना चौंकाने वाली थी क्योंकि यह मामला सामान्य नहीं था—जले हुए नकदी के रूप में बड़ी राशि किसी गुप्त स्थान पर रखी गई थी, और इसका कोई आधिकारिक रिकॉर्ड नहीं था। इसके बाद, दिल्ली हाई कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने पूरे मामले की रिपोर्ट देश के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना को सौंपी।
CJI खन्ना ने 22 मार्च को तीन सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की एक इन-हाउस समिति गठित की, जिसमें पूरे मामले की आंतरिक जांच शुरू हुई। जांच समिति ने 3 मई को अपनी रिपोर्ट सौंपी। इस रिपोर्ट में कहा गया कि “मजबूत परोक्ष प्रमाण” हैं जो दर्शाते हैं कि जली हुई नकदी को न्यायमूर्ति वर्मा के करीबी स्टाफ ने 15 मार्च की तड़के स्टोररूम से हटाया था।
समिति ने यह भी उल्लेख किया कि वर्मा के अधीन कार्यरत कर्मचारियों की भूमिका संदिग्ध है और उनका नियंत्रण स्पष्ट रूप से उस स्टोररूम पर था जहां से जली हुई नकदी मिली। इस आधार पर समिति ने वर्मा के आचरण को “गंभीर न्यायिक कदाचार” की श्रेणी में रखते हुए अनुशासनात्मक कार्रवाई की सिफारिश की।
इसके बाद 8 मई को तत्कालीन CJI खन्ना ने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर सिफारिश की कि न्यायमूर्ति वर्मा को उनके पद से हटाने की कार्यवाही शुरू की जाए। साथ ही, वर्मा का तबादला दिल्ली हाई कोर्ट से इलाहाबाद हाई कोर्ट में कर दिया गया और उनके न्यायिक कार्यों को भी तत्काल प्रभाव से रोक दिया गया।
वर्मा की आपत्ति और सुप्रीम कोर्ट की याचिका
जस्टिस वर्मा ने सुप्रीम कोर्ट में जो याचिका दायर की है, उसमें उन्होंने इन-हाउस पैनल की प्रक्रिया को ही संविधान के विरुद्ध बताया है। उन्होंने आरोप लगाया कि—
- उन्हें अपनी बात रखने का पूरा अवसर नहीं दिया गया।
- जांच समिति ने न तो उन्हें सभी साक्ष्य दिखाए और न ही पर्याप्त दस्तावेज उपलब्ध कराए।
- समिति ने निष्कर्ष निकालने में जल्दबाज़ी दिखाई और आवश्यक न्यायिक प्रक्रिया का पालन नहीं किया।
- रिपोर्ट को सार्वजनिक करने से पहले मीडिया में लीक किया गया, जिससे उनकी छवि को गहरा आघात पहुंचा।
- जांच प्रक्रिया संविधान के अनुच्छेद 124 और 218 के विपरीत है क्योंकि किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को हटाने की एकमात्र वैधानिक प्रक्रिया संसद में महाभियोग प्रस्ताव के माध्यम से होती है, न कि इन-हाउस समिति की सिफारिशों से।
जस्टिस वर्मा ने अपने आवेदन में कहा है कि जांच समिति की प्रक्रिया पारदर्शी नहीं थी, और यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ थी। उनका यह भी कहना है कि समिति ने जो तथाकथित “परोक्ष साक्ष्य” प्रस्तुत किए, वे वास्तविक आरोप सिद्ध करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं।
राजनीतिक और संवैधानिक पृष्ठभूमि
यह मामला ऐसे समय में सामने आया है जब संसद का मानसून सत्र शुरू होने जा रहा है। खबरों के अनुसार, सरकार संसद में वर्मा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने की संभावनाओं पर विचार कर रही है। इस प्रस्ताव के लिए संसद के दोनों सदनों में विशेष बहुमत की आवश्यकता होगी।
यदि सुप्रीम कोर्ट वर्मा की याचिका पर सुनवाई करता है और रिपोर्ट को असंवैधानिक ठहराता है, तो यह न्यायिक प्रणाली में इन-हाउस जांच प्रक्रियाओं की पारदर्शिता और वैधता पर गहरे सवाल खड़े कर देगा।
संवैधानिक विशेषज्ञों का मानना है कि यह मामला केवल एक न्यायाधीश की व्यक्तिगत प्रतिष्ठा या करियर का मामला नहीं है, बल्कि इससे यह तय होगा कि भारत में न्यायिक स्वतंत्रता किस हद तक संरक्षित है और क्या सुप्रीम कोर्ट की निगरानी के बिना की गई कोई भी इन-हाउस जांच संविधान के तहत मान्य है या नहीं।
क्या रिपोर्ट में निष्पक्षता थी?
इस रिपोर्ट में जिन साक्ष्यों का हवाला दिया गया है, वे मुख्यतः परोक्ष हैं—यानी कोई प्रत्यक्ष प्रमाण (जैसे CCTV फुटेज, स्टाफ की स्वीकृतियाँ या स्पष्ट गवाही) अभी तक सामने नहीं आई हैं। इसके बावजूद, जांच समिति ने बेहद गंभीर निष्कर्ष दिए और सीधे तौर पर वर्मा के आचरण को दोषी ठहराया।
इसके विपरीत, वर्मा का पक्ष यह है कि उन्हें जांच में बराबर की भागीदारी का अधिकार नहीं मिला। न्यायिक नैतिकता और प्रक्रियाओं की दृष्टि से यह एक खतरनाक उदाहरण है जो भविष्य में किसी भी न्यायाधीश के साथ दोहराया जा सकता है।
न्यायपालिका के लिए कठिन समय
यह मामला भारतीय न्यायपालिका की विश्वसनीयता के लिए एक परीक्षा बन गया है। यदि बिना पर्याप्त सबूतों के केवल परोक्ष आरोपों के आधार पर किसी न्यायाधीश को हटाने की सिफारिश की जा सकती है, तो इससे न्यायिक स्वतंत्रता पर गहरा खतरा उत्पन्न होता है।
दूसरी ओर, यदि वास्तव में कोई न्यायाधीश भ्रष्टाचार या गलत आचरण में लिप्त पाया जाता है, तो यह भी आवश्यक है कि उसे निष्पक्ष प्रक्रिया के माध्यम से न्याय के दायरे में लाया जाए। लेकिन इस संतुलन को साधना ही न्यायपालिका की सबसे बड़ी चुनौती है।
जस्टिस यशवंत वर्मा का सुप्रीम कोर्ट में जाना न केवल उनके अपने सम्मान की लड़ाई है, बल्कि भारतीय न्यायिक प्रणाली की प्रक्रिया और उसकी पारदर्शिता पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह भी है। यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि सर्वोच्च न्यायालय इस याचिका पर क्या रुख अपनाता है। क्या सुप्रीम कोर्ट इस इन-हाउस समिति की जांच को संवैधानिक कसौटी पर खरा पाता है या इसे अस्वीकार करता है—यही आने वाले समय में भारतीय न्यायपालिका के चरित्र को परिभाषित करेगा।
इस प्रकरण में “नीतिगत झटका” जैसे शब्द सिर्फ एक न्यायाधीश के लिए नहीं, बल्कि पूरे न्यायिक तंत्र के लिए उपयुक्त प्रतीत होते हैं। यह प्रकरण हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि पारदर्शिता, प्रक्रिया और न्याय की सीमाएं आखिर कहां तक फैली हैं।
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