Congress’s controversial poster: हाल ही में कांग्रेस पार्टी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को निशाना बनाते हुए अपने आधिकारिक एक्स (पूर्व में ट्विटर) हैंडल पर एक ऐसा पोस्टर साझा किया, जिसमें पीएम मोदी का चेहरा नहीं दिखाया गया था। इस पोस्टर को सोशल मीडिया पर व्यापक प्रतिक्रिया मिली और कुछ ही घंटों में कांग्रेस को इसे हटाना पड़ा। पार्टी के अंदर इस पोस्टर को लेकर उठे विरोध के चलते यह कदम उठाया गया। इससे यह स्पष्ट हुआ कि कांग्रेस के भीतर भी इस प्रकार के आक्रामक प्रचार को लेकर एक राय नहीं है।
#BreakingNews | #Congress takes down the 'headless' poster of PM Modi after it sparked outrage and was reshared by a former Pakistan minister.
— DD News (@DDNewslive) April 29, 2025
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कांग्रेस के अंदर क्या हुआ?
पोस्टर सामने आते ही पार्टी के अंदर ही कुछ वरिष्ठ नेताओं और रणनीतिकारों ने इसकी आलोचना की। उनका मानना था कि इस प्रकार का प्रतीकात्मक हमला न केवल अनैतिक है बल्कि इससे पार्टी की सार्वजनिक छवि को भी नुकसान होता है। कुछ नेताओं ने यह भी तर्क दिया कि ऐसे पोस्टर प्रधानमंत्री पद की गरिमा पर सीधा हमला करते हैं, जो कांग्रेस की विचारधारा और संवैधानिक मर्यादा के विरुद्ध है।
कांग्रेस में विचारधारा को लेकर पहले से ही खींचतान चल रही है — एक पक्ष जो आक्रामक प्रचार का पक्षधर है, और दूसरा पक्ष जो मानता है कि बीजेपी से वैचारिक और नीतिगत स्तर पर लड़ना चाहिए, न कि व्यक्तिगत स्तर पर।
बीजेपी की तीखी प्रतिक्रिया
बीजेपी ने इस पोस्टर को लेकर तीखी प्रतिक्रिया दी और कांग्रेस पर आरोप लगाया कि वह भारत विरोधी ताकतों की भाषा बोल रही है। खासतौर पर तब, जब जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए हालिया आतंकी हमले में 26 लोगों की जान चली गई है, इस प्रकार की राजनीति को भाजपा ने बेहद शर्मनाक और असंवेदनशील करार दिया।
बीजेपी के नेताओं ने कहा कि इस तरह के हमलों के समय, जब देश को एकजुटता की जरूरत है, तब कांग्रेस ऐसे पोस्टर जारी कर रही है, जिससे देश की छवि और लोकतांत्रिक मर्यादा को ठेस पहुंच रही है।
पोस्टर युद्ध: राजनीतिक प्रचार या वैमनस्य की पराकाष्ठा?
यह विवाद केवल एक पोस्टर तक सीमित नहीं रहा। पिछले कुछ महीनों में कांग्रेस और बीजेपी के बीच “पोस्टर युद्ध” चल रहा है। दोनों पार्टियां एक-दूसरे के नेताओं को नकारात्मक प्रतीकों में चित्रित कर रही हैं। कभी पीएम मोदी को कठपुतली के रूप में दिखाया गया, तो कभी राहुल गांधी को ‘रावण’ के रूप में।
इन पोस्टरों का उद्देश्य भले ही विपक्ष पर निशाना साधना हो, लेकिन यह लोकतंत्र के स्वस्थ संवाद की जगह वैमनस्य और द्वेष की राजनीति को जन्म दे रहा है। जहां एक तरफ इसे कुछ लोग ‘राजनीतिक व्यंग्य’ का नाम देते हैं, वहीं दूसरी तरफ यह चिंता का विषय है कि भारत की प्रमुख पार्टियां जनता के असल मुद्दों से ध्यान हटाकर व्यक्तिगत हमलों में ऊर्जा खर्च कर रही हैं।
धार्मिक भावना और राजनीतिक बयानबाजी
इस पूरे विवाद के समानांतर केरल कांग्रेस का एक और ट्वीट भी विवाद में आ गया। एक मीम के ज़रिए केरल कांग्रेस ने पोप फ्रांसिस और प्रधानमंत्री मोदी की मुलाकात पर टिप्पणी करते हुए कहा, “अंततः पोप को भगवान से मिलने का मौका मिल गया।” यह ट्वीट ईसाई समुदाय में आक्रोश का कारण बना और कांग्रेस को जल्द ही माफी मांगते हुए उसे हटाना पड़ा।
इस घटना से यह भी स्पष्ट होता है कि जब राजनीति धार्मिक प्रतीकों के साथ खेलने लगती है, तब उसका असर केवल चुनाव तक सीमित नहीं रहता, बल्कि सामाजिक सौहार्द को भी प्रभावित करता है।
क्या यह रणनीति सफल होगी?
राजनीतिक दलों द्वारा ऐसे पोस्टर और बयान देना एक रणनीति का हिस्सा हो सकता है, जिससे वे अपने समर्थकों को उकसा सकें और विरोधियों को नीचा दिखा सकें। लेकिन सवाल यह है कि क्या इससे जनता के विश्वास में बढ़ोतरी होती है? क्या इससे युवाओं, महिलाओं, किसानों, मजदूरों और नौकरीपेशा वर्ग के जीवन में कोई सकारात्मक असर होता है?
इस प्रकार के प्रचार से शायद कुछ तात्कालिक ध्यान मिल जाए, लेकिन दीर्घकालिक राजनीतिक विश्वसनीयता इससे कमज़ोर हो सकती है। जनता अब समझदार हो चुकी है। वह मुद्दों पर आधारित राजनीति को प्राथमिकता देती है — जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, महंगाई, रोजगार और सामाजिक न्याय।
राजनीति को पुनः दिशा देने की आवश्यकता
कांग्रेस द्वारा प्रधानमंत्री मोदी को लेकर शेयर किया गया हेडलैस पोस्टर और फिर उसे हटाना यह दर्शाता है कि पार्टी के अंदर भी अब इस बात की समझ विकसित हो रही है कि अत्यधिक आक्रामक प्रचार रणनीति उल्टा असर डाल सकती है। वहीं, बीजेपी को भी यह समझना होगा कि यदि वह खुद भी व्यक्तिगत स्तर पर हमले करती है, तो वह अपने ही नैतिक आधार को खो सकती है।
भारत जैसे लोकतंत्र में राजनीतिक मतभेद होना स्वाभाविक है, लेकिन असहमति को व्यक्तिगत हमले में बदल देना एक खतरनाक चलन बनता जा रहा है। दोनों राष्ट्रीय पार्टियों को चाहिए कि वे अपने अभियान को नीति-आधारित और जनहितकारी बनाएं।
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