India’s Language War: भारत एक बहुभाषी देश है, जहां सैकड़ों भाषाएं और बोलियां बोली जाती हैं। यह भाषाई विविधता हमारी सांस्कृतिक धरोहर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, लेकिन समय-समय पर यह विविधता भाषाई संघर्षों का कारण भी बनी है। हाल के वर्षों में, विशेष रूप से हिंदी के प्रसार और इसे राष्ट्रीय भाषा के रूप में स्थापित करने के प्रयासों ने दक्षिणी राज्यों में विरोध और तनाव को जन्म दिया है। इस लेख में, हम भारत में भाषाई संघर्षों के इतिहास और वर्तमान परिदृश्य का विश्लेषण करेंगे।
भाषाई संघर्षों का इतिहास
स्वतंत्रता के बाद, भारत ने अपनी भाषाई विविधता को मान्यता देते हुए संविधान में 22 भाषाओं को अनुसूचित भाषाओं के रूप में शामिल किया। हालांकि, हिंदी को आधिकारिक भाषा के रूप में स्वीकार किया गया, लेकिन अंग्रेजी को भी सह-आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया गया ताकि गैर-हिंदी भाषी राज्यों के साथ संवाद में सुविधा हो।
1965 में, जब अंग्रेजी के आधिकारिक उपयोग की अवधि समाप्त होने वाली थी, हिंदी को एकमात्र आधिकारिक भाषा बनाने के प्रयासों ने तमिलनाडु जैसे राज्यों में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों को जन्म दिया। इन प्रदर्शनों के परिणामस्वरूप, केंद्र सरकार ने अंग्रेजी के उपयोग को अनिश्चित काल तक बढ़ा दिया, जिससे हिंदी थोपने की कोशिशों को विराम मिला।
वर्तमान परिदृश्य
हाल के वर्षों में, हिंदी को राष्ट्रीय भाषा के रूप में स्थापित करने के प्रयासों ने फिर से जोर पकड़ा है। 2022 में, केंद्रीय नेतृत्व द्वारा दिए गए बयानों में कहा गया कि विभिन्न राज्यों के लोगों को हिंदी बोलनी चाहिए और इसे अंग्रेजी के विकल्प के रूप में स्वीकार करना चाहिए। इस बयान ने गैर-हिंदी भाषी राज्यों, विशेष रूप से दक्षिण भारत में, विरोध की लहर पैदा की।
तमिलनाडु में, हिंदी थोपने के प्रयासों के खिलाफ विरोध का एक लंबा इतिहास रहा है। 1937-40, 1948 और 1965 में हिंदी को अनिवार्य भाषा बनाने के प्रयासों ने बड़े पैमाने पर आंदोलनों को जन्म दिया। इन आंदोलनों के परिणामस्वरूप, राज्य ने दो-भाषा नीति (तमिल और अंग्रेजी) को अपनाया, जिससे छात्रों को हिंदी सीखने के लिए मजबूर नहीं किया गया।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 और विवाद
2020 में पेश की गई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) ने भी भाषाई बहस को हवा दी है। नीति में त्रिभाषा सूत्र का उल्लेख है, जिसमें छात्रों को तीन भाषाएं सीखने की सलाह दी गई है, जिसमें हिंदी भी शामिल है। तमिलनाडु जैसे राज्यों ने इस पर आपत्ति जताई है, इसे हिंदी थोपने का प्रयास मानते हुए। राज्य सरकार का तर्क है कि उनकी दो-भाषा नीति ने छात्रों को वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धी बनने में मदद की है, और तीसरी भाषा का बोझ डालना अनुचित है।
कर्नाटक में भाषाई तनाव
कर्नाटक, विशेष रूप से बेंगलुरु, में हाल के दशकों में उत्तर भारतीय प्रवासियों की संख्या में वृद्धि हुई है, जिससे स्थानीय कन्नड़ भाषी समुदाय में सांस्कृतिक पहचान और भाषा संरक्षण को लेकर चिंताएं बढ़ी हैं। प्रो-कन्नड़ संगठनों ने हिंदी के बढ़ते प्रभाव के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किए हैं, जिसमें हिंदी साइनबोर्ड्स को हटाना और स्थानीय रोजगार में कन्नड़ भाषियों को प्राथमिकता देने की मांग शामिल है। राज्य सरकार ने भी स्थानीय भाषा और संस्कृति की रक्षा के लिए कदम उठाए हैं, जिससे गैर-कन्नड़ भाषी समुदायों के साथ तनाव बढ़ा है।
भाषाई संघर्षों के सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव
भाषाई संघर्षों का प्रभाव केवल सांस्कृतिक स्तर तक सीमित नहीं है; इसका सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है। भाषा के आधार पर भेदभाव और असमानता की भावना सामाजिक ताने-बाने को कमजोर करती है। राजनीतिक दल अक्सर इन भावनाओं का उपयोग अपने लाभ के लिए करते हैं, जिससे क्षेत्रीयता और विभाजन की राजनीति को बढ़ावा मिलता है।
भविष्य की दिशा
भारत की भाषाई विविधता उसकी ताकत है, लेकिन इसे संभालने के लिए संवेदनशीलता और समझ की आवश्यकता है। भाषा नीतियों को बनाते समय सभी भाषाई समुदायों की भावनाओं और आवश्यकताओं का सम्मान किया जाना चाहिए। राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने के लिए, यह आवश्यक है कि हम सभी भाषाओं को समान महत्व दें और किसी एक भाषा को थोपने से बचें।
भारत में भाषाई संघर्ष एक जटिल और संवेदनशील मुद्दा है, जो हमारे देश की सांस्कृतिक विविधता को प्रतिबिंबित करता है। हमें इस विविधता का सम्मान करते हुए, सभी भाषाओं और संस्कृतियों को समान महत्व देना चाहिए, ताकि राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समरसता को बनाए रखा जा सके।