Partition of India: भारत का विभाजन, 1947 में हुआ वह ऐतिहासिक और त्रासदपूर्ण अध्याय है जिसने उपमहाद्वीप के करोड़ों लोगों के जीवन को उलट-पलट कर रख दिया। यह सिर्फ दो देशों — भारत और पाकिस्तान — का निर्माण नहीं था, बल्कि यह मानवता, सभ्यता और संस्कृति के बंटवारे की करुण कहानी भी थी। इस घटना ने सिर्फ राजनीतिक नक्शा नहीं बदला, बल्कि सामाजिक ताने-बाने को भी गहरे स्तर पर झकझोर दिया।
विभाजन की पृष्ठभूमि: बीज कहाँ पड़े?
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने 18वीं शताब्दी के मध्य में भारत पर अपनी पकड़ बनानी शुरू की। धीरे-धीरे, यह व्यापारिक कंपनी एक उपनिवेशी ताकत में तब्दील हो गई और 1858 के बाद ब्रिटिश ताज के अधीन भारत सीधे ब्रिटिश राज में चला गया।
19वीं और 20वीं सदी की शुरुआत में, भारतीय समाज में धार्मिक पहचान के आधार पर राजनीति की शुरुआत हो चुकी थी। एक ओर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस थी जो हिंदू-मुस्लिम एकता की बात करती थी, वहीं दूसरी ओर 1906 में बनी ऑल इंडिया मुस्लिम लीग ने मुस्लिम समुदाय के लिए अलग राजनीतिक प्रतिनिधित्व की माँग शुरू कर दी।
1916 का लखनऊ समझौता एक समय कांग्रेस और मुस्लिम लीग को करीब लाया, परंतु जल्द ही स्थितियाँ बदलने लगीं। मोहम्मद अली जिन्ना ने “दो-राष्ट्र सिद्धांत” का प्रचार करना शुरू किया, जिसके अनुसार हिंदू और मुस्लिम दो अलग-अलग कौमें हैं और उन्हें अलग राष्ट्र में रहना चाहिए।
राजनैतिक सौदेबाज़ी और माउंटबेटन योजना
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन कमजोर हो चुका था और अब वह भारत को अधिक समय तक गुलाम बनाए रखने की स्थिति में नहीं था। 1946 में अंतरिम सरकार का गठन हुआ, लेकिन कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच मतभेद बने रहे। धार्मिक तनाव बढ़ रहा था और दंगे भड़कने लगे थे, विशेषकर कोलकाता, नोआखाली और पंजाब में।
इसी पृष्ठभूमि में 3 जून 1947 को तत्कालीन वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने भारत के विभाजन की योजना की घोषणा की, जिसे “माउंटबेटन योजना” कहा गया। योजना के अनुसार भारत को दो देशों — भारत और पाकिस्तान — में बाँटा जाएगा। पंजाब और बंगाल जैसे प्रांतों का भी विभाजन धार्मिक आधार पर किया गया।
लाखों ज़िंदगियों का विस्थापन
भारत के विभाजन के साथ ही दुनिया का सबसे बड़ा मानवीय विस्थापन हुआ। लगभग 1.5 से 2 करोड़ लोग अपनी जन्मभूमि छोड़ने को मजबूर हुए। जिन लोगों ने एक रात पहले तक अपने पड़ोसियों के साथ दशकों से मिलजुल कर ज़िंदगी बिताई थी, वे अब एक-दूसरे के दुश्मन बन चुके थे।
लोग जान बचाने के लिए ट्रेनों, बैलगाड़ियों और पैदल रास्तों से सीमाओं की ओर भागे। इन रास्तों में दंगों, हत्याओं और लूटपाट की घटनाएँ आम हो गईं। ट्रेनें लाशों से भरी मिलती थीं, गाँवों को आग के हवाले किया जा रहा था। एक अनुमान के अनुसार लगभग 10 लाख लोग इस हिंसा में मारे गए।
महिलाओं पर अत्याचार: नारी की सबसे बड़ी हार
विभाजन की त्रासदी में सबसे अधिक पीड़ा महिलाओं ने झेली। लगभग 75,000 से अधिक महिलाओं का अपहरण, बलात्कार और हत्या हुई। कई महिलाओं को मजबूरी में आत्महत्या करनी पड़ी या अपने बच्चों के साथ कुओं में कूद जाना पड़ा।
भारतीय और पाकिस्तानी सरकारों ने अपहृत महिलाओं को बचाने और उन्हें उनके परिवारों तक पहुँचाने के लिए ‘महिला पुनर्वास योजना’ चलाई। परंतु बहुत सी महिलाएँ सामाजिक कलंक, भय और मानसिक आघात के कारण कभी अपने परिवारों में लौट नहीं सकीं।
विभाजन का विरोध: एकता की आखिरी आवाज़ें
जहाँ एक ओर कुछ नेता पाकिस्तान की माँग कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर कई मुस्लिम संगठन और नेता विभाजन के सख्त विरोध में थे। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने कहा था कि “धर्म के नाम पर देश बाँटना भारत की आत्मा को बाँटने जैसा है।” उनके साथ शौकतुल्लाह शाह अंसारी, सैफुद्दीन किचलू, खान अब्दुल गफ्फार खान जैसे नेता भी थे, जिन्होंने हमेशा सांप्रदायिक सौहार्द और एकता की वकालत की।
विभाजन की सांस्कृतिक छाया
भारत-पाकिस्तान विभाजन की स्मृतियाँ केवल इतिहास की पुस्तकों में सीमित नहीं रहीं, बल्कि उन्होंने साहित्य, सिनेमा और कला में भी गहरी छाप छोड़ी। सआदत हसन मंटो की कहानियाँ जैसे “टोबा टेक सिंह”, “खोल दो”, और “ठंडा गोश्त” ने विभाजन की नंगी सच्चाई को समाज के सामने रखा।
भारतीय सिनेमा ने भी इस विषय पर कई मार्मिक फिल्में बनाईं — ‘गर्म हवा’ (1973), ‘तमस’ (1988), और ‘पिंजर’ (2003) ने विभाजन की पीड़ा को स्क्रीन पर जीवंत किया। इन फिल्मों और साहित्य ने आने वाली पीढ़ियों को इस त्रासदी के दर्द से जोड़े रखा।
आज का सन्दर्भ: क्या हमने कुछ सीखा?
आज, जब हम 21वीं सदी में खड़े हैं और भारत-पाकिस्तान के बीच अनेक बार तनावपूर्ण रिश्तों का सामना करते हैं, तब यह सवाल फिर उठता है — क्या विभाजन टाला जा सकता था? क्या हम धार्मिक पहचान से ऊपर उठकर एक साझा राष्ट्र बना सकते थे?
इस प्रश्न का कोई सरल उत्तर नहीं है, लेकिन यह अवश्य कहा जा सकता है कि विभाजन से हमने नफरत, हिंसा और सांप्रदायिकता के खतरे को महसूस किया। यह घटना आज भी हमें शांति, सहिष्णुता और बहुलतावाद के मूल्यों की याद दिलाती है।
भारत का विभाजन केवल राजनीतिक निर्णय नहीं था — यह एक सामाजिक और मानवीय विघटन था। इसने हमारे इतिहास को लहूलुहान कर दिया, करोड़ों सपनों को रौंद डाला और आज भी इसका प्रभाव हमारी सामूहिक चेतना पर बना हुआ है। यह ज़रूरी है कि हम इस इतिहास को याद रखें, न केवल आँकड़ों और तथ्यों के रूप में, बल्कि उस मानवीय पीड़ा के प्रतीक के रूप में जिससे हम भविष्य में बच सकें।
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