SC rejects plea of ownership on red fort

SC rejects plea of ownership on red fort: 5 मई 2025 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक अहम निर्णय में एक महिला की याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें उन्होंने दिल्ली स्थित ऐतिहासिक स्मारक ‘लाल क़िला’ पर स्वामित्व का दावा किया था। महिला ने दावा किया कि वह भारत के अंतिम मुग़ल सम्राट बहादुर शाह ज़फर के परपोते मिर्ज़ा मोहम्मद बेदार बख़्त की विधवा हैं और इसलिए उन्हें लाल क़िले का वैध उत्तराधिकारी माना जाना चाहिए।

क्या था मामला?

याचिकाकर्ता, सुल्ताना बेगम, जो वर्तमान में पश्चिम बंगाल के हावड़ा जिले में रहती हैं, ने कोर्ट में दावा किया कि वर्ष 1857 में जब अंग्रेजों ने बहादुर शाह ज़फर को सत्ता से हटा दिया था, तब उन्होंने दिल्ली के लाल क़िले को जबरन अपने कब्जे में ले लिया था। उनके अनुसार, यह स्मारक उनके खानदानी उत्तराधिकार का हिस्सा है और वर्तमान में भारत सरकार इस पर “अवैध कब्जा” बनाए हुए है।

सुल्ताना बेगम ने अदालत से अनुरोध किया कि उन्हें लाल क़िले का पूर्ण स्वामित्व सौंपा जाए और 1857 से लेकर अब तक का मुआवज़ा भी दिया जाए। उनके अनुसार, यह उनके पूर्वजों की संपत्ति थी जिसे औपनिवेशिक शासन ने छीन लिया था और स्वतंत्र भारत सरकार ने उसे अपने नियंत्रण में रख लिया।

सुप्रीम कोर्ट की तीखी प्रतिक्रिया

मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति पीवी संजय कुमार की पीठ ने इस याचिका को पूरी तरह से “काल्पनिक और ऐतिहासिक तथ्यों से परे” बताया। कोर्ट ने टिप्पणी की कि यह मामला ऐतिहासिक घटनाओं को वर्तमान के संवैधानिक और कानूनी ढांचे में समझने में असफल रहा है।

मुख्य न्यायाधीश ने तंज कसते हुए पूछा, “केवल लाल किला ही क्यों? फिर फतेहपुर सीकरी पर भी दावा क्यों नहीं? क्या अन्य ऐतिहासिक इमारतें भी इसी तरह से दावों के घेरे में लाई जाएंगी?” कोर्ट का स्पष्ट मत था कि किसी ऐतिहासिक शासक के वंशज होने मात्र से सरकारी संपत्ति पर अधिकार नहीं बनता।

पहले भी खारिज हुई थी याचिका

यह पहली बार नहीं है जब सुल्ताना बेगम ने न्यायालय से यह आग्रह किया हो। उन्होंने वर्ष 2021 में दिल्ली हाई कोर्ट में याचिका दायर की थी, जिसे समय पर याचिका दायर न करने के आधार पर खारिज कर दिया गया था। हाई कोर्ट का मानना था कि याचिका 150 साल से भी अधिक की देरी से दायर की गई है, जो न्यायिक प्रक्रिया की दृष्टि से अस्वीकार्य है।

इसके बाद उन्होंने दिसंबर 2024 में पुनः उच्च न्यायालय में अपील की, जिसमें उन्होंने याचिका में हुई देरी के पीछे अपने खराब स्वास्थ्य और पारिवारिक कारणों (जैसे कि बेटी की मृत्यु) का हवाला दिया। लेकिन यह दलील भी न्यायालय को संतुष्ट नहीं कर सकी और याचिका खारिज कर दी गई। अंततः यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, जहां भी उन्हें राहत नहीं मिली।

सामाजिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

सुल्ताना बेगम का जीवन आज बेहद साधारण और संघर्षपूर्ण है। वे एक छोटे से घर में रहकर सिलाई का काम कर के जीवनयापन करती हैं। उनका कहना है कि भारत सरकार ने उनके पति को पूर्व में एक स्वतंत्रता सेनानी मानते हुए पेंशन प्रदान की थी, जो उनके निधन के बाद उन्हें मिलती रही। लेकिन वे यह मानती हैं कि यह पेंशन उनकी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए अपर्याप्त है।

उनके अनुसार, अगर उन्हें लाल क़िले का अधिकार नहीं भी दिया जाए, तो कम से कम सरकार उन्हें और उनके परिवार को उनकी स्थिति के अनुरूप उचित मुआवज़ा और सम्मान दे। उनका तर्क है कि उनके पूर्वजों ने भारत की संस्कृति, स्थापत्य और शासन को आकार दिया, और आज उनके वंशज दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हैं।

क्या यह दावा वैधानिक था?

कानूनी जानकारों के अनुसार, ऐतिहासिक संपत्तियों पर इस तरह के स्वामित्व दावे बिना ठोस दस्तावेज़ी सबूतों के न्यायिक प्रक्रिया में टिक नहीं सकते। भारत का संविधान स्पष्ट रूप से कहता है कि सार्वजनिक संपत्ति सरकार की होती है और इसका उपयोग जनहित में होना चाहिए।

इतिहासकार भी मानते हैं कि 1857 के बाद, भारत में शासन और स्वामित्व की संरचना पूरी तरह बदल गई थी। मुग़ल शासन की समाप्ति के साथ उनकी संपत्तियों का कानूनी उत्तराधिकार भी समाप्त माना गया। ऐसे में 150 साल बाद इन संपत्तियों पर स्वामित्व का दावा करना इतिहास और कानून दोनों के विपरीत है।

क्या यह केवल एक महिला की लड़ाई थी?

सुल्ताना बेगम की इस कानूनी लड़ाई को केवल व्यक्तिगत मानना उचित नहीं होगा। यह मामला उस गहरे असंतोष को दर्शाता है जो कई वंशजों में है, जो मानते हैं कि उनके पूर्वजों की भूमिका और विरासत को स्वतंत्र भारत में भुला दिया गया है। यह सवाल भी खड़ा करता है कि क्या हमारी सरकार को ऐसे परिवारों को सम्मानपूर्वक जीवन देने की ज़िम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए, जिन्होंने एक समय भारत का नेतृत्व किया?

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय इस बात को रेखांकित करता है कि इतिहास का सम्मान और संवैधानिक ढांचे का पालन, दोनों आवश्यक हैं। किसी भी ऐतिहासिक शासक के वंशज होने मात्र से आज के लोकतांत्रिक भारत में कोई विशेष अधिकार नहीं मिल सकता। परंतु यह मामला यह भी सोचने को मजबूर करता है कि क्या हमें ऐसे ऐतिहासिक परिवारों की सामाजिक स्थिति पर विचार नहीं करना चाहिए?

देश की आत्मा उसकी विरासत में बसती है, लेकिन उस विरासत को संभालने के लिए सिर्फ भावनात्मक जुड़ाव नहीं, बल्कि कानूनी और तार्किक सोच भी आवश्यक है।

अधिक समाचारों के लिए पढ़ते रहें जनविचार।

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Kiran Mankar - Admin & Editor, Jana Vichar.Kiran manages and curates content for Jana Vichar, a platform dedicated to delivering detailed, trending news from India and around the world. Passionate about journalism, technology, and the evolving landscape of human relationships, Kiran ensures that every story is engaging, insightful, and relevant. With a focus on accuracy and a human-centered approach, Kiran strives to keep readers informed with meaningful news coverage.

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