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Supreme Court: सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले पर लगाई रोक, कहा – न्याय में संवेदनशीलता जरूरी

Supreme Court: हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के उस विवादास्पद फैसले पर रोक लगा दी है, जिसमें कहा गया था कि नाबालिग लड़की के स्तनों को छूना, उसकी पायजामे की डोरी तोड़ना और उसे पुलिया के नीचे खींचने का प्रयास करना बलात्कार या बलात्कार के प्रयास की श्रेणी में नहीं आता। सुप्रीम कोर्ट की यह कार्रवाई समाज में न्याय की संवेदनशीलता और महिलाओं की सुरक्षा के प्रति उसकी प्रतिबद्धता को दर्शाती है।

मामला क्या है?

यह मामला उत्तर प्रदेश के कासगंज जिले का है, जहां नवंबर 2021 में एक 11 वर्षीय लड़की के साथ दो व्यक्तियों, पवन और आकाश, ने कथित तौर पर दुर्व्यवहार किया। आरोप है कि उन्होंने लड़की के स्तनों को छुआ, उसकी पायजामे की डोरी तोड़ी और उसे पुलिया के नीचे खींचने का प्रयास किया। इस दौरान, कुछ राहगीरों के हस्तक्षेप के कारण आरोपी वहां से फरार हो गए।

स्थानीय अदालत ने पहले इन आरोपियों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 376 (बलात्कार) और पोक्सो अधिनियम की संबंधित धाराओं के तहत समन जारी किया था।

इलाहाबाद हाई कोर्ट का विवादास्पद फैसला

आरोपियों ने इस समन आदेश को इलाहाबाद हाई कोर्ट में चुनौती दी। मार्च 2025 में, न्यायमूर्ति राम मनोहर नारायण मिश्रा की एकल पीठ ने निर्णय दिया कि आरोपियों के कृत्य बलात्कार के प्रयास की श्रेणी में नहीं आते, बल्कि उन्हें ‘गंभीर यौन उत्पीड़न’ माना जाना चाहिए। अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष को यह साबित करना होगा कि अपराध की तैयारी से आगे बढ़कर वास्तविक प्रयास किया गया था।

इसके आधार पर, हाई कोर्ट ने आरोपियों के खिलाफ आरोपों को धारा 376 से बदलकर धारा 354(B) (महिला को निर्वस्त्र करने के इरादे से हमला या आपराधिक बल का प्रयोग) और पोक्सो अधिनियम की धाराओं में संशोधित किया।

सुप्रीम कोर्ट की कड़ी प्रतिक्रिया

इलाहाबाद हाई कोर्ट के इस निर्णय के बाद, ‘वी द वीमेन ऑफ इंडिया’ नामक संगठन ने सुप्रीम कोर्ट का ध्यान इस मामले की ओर आकर्षित किया। सुप्रीम कोर्ट की न्यायमूर्ति बी.आर. गवई और ऑगस्टिन जॉर्ज मसीह की पीठ ने इस पर स्वतः संज्ञान लेते हुए कहा कि हाई कोर्ट का आदेश न्यायिक संवेदनशीलता की कमी को दर्शाता है।

अदालत ने विशेष रूप से आदेश के पैराग्राफ 21, 24 और 26 को कानून के सिद्धांतों के विपरीत और अमानवीय दृष्टिकोण वाला मानते हुए उन पर रोक लगा दी।

सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी

सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति बी.आर. गवई ने कहा, “हम यह देखकर दुखी हैं कि आदेश को लिखने वाले न्यायाधीश में संवेदनशीलता की पूर्णतः कमी थी। यह आदेश सिर्फ क्षणिक नहीं था बल्कि इसे चार महीने विचार-विमर्श के बाद दिया गया था, जिससे स्पष्ट होता है कि इसमें सोच-विचार किया गया था।”

सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को अमानवीय करार देते हुए कहा कि ऐसे मामलों में न्यायपालिका को अधिक संवेदनशील होना चाहिए। अदालत ने यह भी सुझाव दिया कि इलाहाबाद हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को इस तरह के मामलों में विशेष ध्यान देना चाहिए।

समाज में प्रभाव और प्रतिक्रिया

सुप्रीम कोर्ट के इस कदम का समाज में व्यापक स्वागत हुआ है। कानूनी विशेषज्ञों और महिला अधिकार कार्यकर्ताओं ने इसे न्यायपालिका की संवेदनशीलता और महिलाओं की सुरक्षा के प्रति उसकी प्रतिबद्धता का प्रतीक माना है। यह निर्णय उन मामलों में एक महत्वपूर्ण उदाहरण स्थापित करता है, जहां यौन अपराधों की परिभाषा और उनकी गंभीरता को लेकर भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है।

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय न्यायपालिका की उस भूमिका को रेखांकित करता है, जिसमें वह समाज में न्याय और समानता सुनिश्चित करने के लिए तत्पर रहती है। यह मामला इस बात का प्रमाण है कि न्यायालय महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान के प्रति संवेदनशील है और किसी भी प्रकार की न्यायिक त्रुटि को सुधारने के लिए तैयार है।

 

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